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लोककथा

ज्ञानियों की गति

खलील जिब्रान

अनुवाद - बलराम अग्रवाल


चार मेढक नदी किनारे के एक लट्ठे पर बैठे थे। अचानक लट्ठा धारा में आ गया और धीरे-धीरे बहने लगा। मेढक खुश हो गए और लट्ठे के साथ तैरने लगे। इससे पहले उन्होंने कभी भी नाव की सवारी नहीं की थी।

कुछ दूरी पर पहला मेढक बोला, "यह वास्तव में ही बहुत चमत्कारी लट्ठा है। ऐसे तैर रहा है जैसे जिन्दा हो। ऐसा लट्ठा पहले कभी नहीं सुना।"

दूसरे मेढक ने कहा, "नहीं मेरे दोस्त, है तो यह दूसरे लट्ठों जैसा ही। चल यह नहीं रहा है। दरअसल, यह नदी है न, समुद्र की ओर जा रही है। हमें और लट्ठे को यह अपने साथ बहाए ले-जा रही है।"

तीसरा मेढक बोला, "भाई, गति न तो लट्ठे में है और न नदी में। गति हमारे विचारों में है। बिना विचार के कुछ भी गतिशील नहीं होता।"

अब, तीनों मेढक इस बात पर झगड़ने लगे कि गति वास्तव में किसमें है? लड़ाई तेज से तेजतर होती गई लेकिन सहमति नहीं बन पाई।

फिर वे चौथे मेढक की ओर मुड़े। वह अब तक चुपचाप उनकी बातें सुन रहा था। उन्होंने उससे उसकी राय पूछी।

चौथा मेढक बोला, "तुममें से किसी की भी बात गलत नहीं है। गति लट्ठे में, जल में और विचारों में - सब में है।"

उसकी बात पर तीनों मेढक बहुत नाराज हो गए क्योंकि उनमें से किसी को भी यह बर्दाश्त नहीं था कि उसकी बात पूरी तरह सही नहीं है और यह कि बाकी दोनों की बात पूरी तरह गलत नहीं है।

फिर एक अजीब बात हुई। तीनों मेढक एकजुट हो गए और चौथे मेढक को उन्होंने लट्ठे पर से धक्का दे दिया।


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